समुद्र और मैं

by - October 01, 2018


कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था लेकिन दिमाग ने उंगलियों का साथ देने से साफ मना कर दिया। यह कुछ-कुछ वैसा ही मामला जान पड़ता था जैसे कई दिनों से बैठे बैल खेतों में जाने से साफ मना कर दें और किसान को देखकर केवल जुगाली करता रहे। पहली बार जब मैं गांव गया था तो समझ नहीं पाया था कि गाय, बैंस या बैल हर समय मुंह क्यों चलाते रहते हैं। जैसे वह इतना महत्वपूर्ण कार्य हो कि उसके बिना केंद्र में सरकार ही गिर जाएगी।  

अब जब कोई किसी का साथ देने से मना कर दे, तो क्या किया जा सकता है? तो उंगलियां इंटरनेट पर यूं ही चहल-कदमी करने लगी और एक शार्ट फिल्म बॉर्न फ्री स्क्रीन पर चल पड़ी। इस फिल्म को गोवा में फिलमाया गया है। गोवा का भी अपना महत्व है। वैसे मैं किसी राजनीतिक महत्व की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो आध्यात्मिक महत्व की बात कर रहा हूं। गोवा का नाम सुनते ही हमारे नौजवानों और खुद को नौजवान साबित करने वाले बुजुर्गों के मनो-मस्तिष्क में कई छवियां उभरती हैं जो उन्हें इस निरस जग में रस का एहसास कराती हैं। इस देश में कहीं परमांद है तो वह बस वहीं है बाकि सब मोह-माया है। आप किसी से कह के देखिए कि गोवा घूम कर आए हैं, सामने वाला ऐसे देखेगा कि आपको अपना चरित्र प्रमाण-पत्र दोबारा बनवाने की जरूरत महसूस होने लगेगी। 



गोवा को देखते ही समुंद्र की याद आ गई। मेरे और समुद्र की मुलाकात में करीब 29 वर्ष लग गए। इतने वर्षों तक अलग-अलग रहते हुए शायद हम दोनों को ही इसकी आदत पड़ गई थी। होता है जब ज्यादा समय किसी से दूर रह लो तो उसकी आवश्यता महसूस होनी बंद हो जाती है। डार्विन का सिद्धांत है कि जिस अंग का हम इस्तेमाल करना छोड़ देते हैं तो वह धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं। डार्विन के सिद्धांत के बारे में मेरे मित्र हमेशा एक बात कहा करते थे लेकिन किसी और परिप्रेक्ष्य में। उस परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश न डाला जाए तो अच्छा है। मेरे हिसाब से डार्विन का सिद्धांत रिश्तों पर भी वैसे ही लागू होती है जैसे उनके मुताबिक जानवरों और मनुष्यों पर।
इन वर्षों में केवल फिल्मों और तस्वीरों में ही समुद्र को देखा और महसूस करने की कोशिश की। कभी समुद्र से आखें मिलाकर बात करने का मौका नहीं मिला। अब उन लोगों का दर्द मुझे समझ आ रहा था जो लोग लांग डिस्सटेंस रिलेशनशिप में रहते हैं। वर्तमान समय में तो फोन, इंटरनेट और जाने क्या-क्या चीजें हैं जो इसके एहसास को थोड़ा कम कर देती हैं लेकिन पहले जब लोग देश-विदेश अपने परिवार को छोड़कर अजीविका के लिए जाते थे तो वे कैसे दिन गुजारते होंगे। मुझे आज भी याद है पहले जब मोबाइल फोन इतना नहीं चला था और लैंडलाइन भी गंजे के सिर पर बाल ढूंढ़ने जैसा था उस समय जब कोई बाहर जाता था तो घर वाले कहते थे कि जाते ही चिठ्ठी डाल देना। जो करीब 15 दिन में घरवालों को मिलती थी। लोगों को यह जानने में कि अमुख व्यक्ति सही-सलामत पहुंच गया है, 15 दिन लग जाते थे। 

वास्तविकता हमेशा आभासी से अलग ही होती है। आभासी कितना भी सत्याभास कराने की कोशिश करें, सत्य आखिर सत्य ही होता है। वैसे मुझे खुद ही नहीं पता कि इतने भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल मैंने कर दिया है। शायद समुद्र की गहराई का असर है।

मेरे और समुद्र की मुलाकात का पहला पड़ाव मैं पहले ही लिख चुका हूं। मेरी पहली हवाई यात्रा के तौर पर। समुंद्र से रूबरू होने के सफर में मैंने दिल्ली से बैंगलोर तक हवाई जहाज में यात्रा की थी वह उसी का विवरण था। मेरी और समुंद्र की मुलाकात उडुप्पी में होनी थी। वैसे देखा जाए तो मुलाकात की यह जगह मैंने नहीं समुद्र ने तय की थी। क्योंकि मैं तय करता तो शायद ओडिशा वह जगह होती जहां मैं और समुद्र पहली बार रूबरू होते, किसी पुराने कुंभ के मेले में बिछड़े भाई या दोस्त, या इंटरनेट पर मिले प्रेमियों की तरह जो कई वर्षों से इंटरनेट पर चैट और जाने क्या-क्या करते आ रहे हैं, पर अब एक-दूसरे से रूबरू होने का समय आ गया था। कौन किसके उम्मीदों पर खरा उतरा यह सोचने का विषय था। 

बहरहाल मैं बैंगलोर पहुंच चुका था, यहां से शाम की ट्रेन थी उडुप्पी के लिए। मेरे साथ हमेशा यह समस्या रही है कि मैं कभी भी ज्यादा रोमांचित नहीं होता हूं। क्या करूं मैं थोड़ा बोरिंग किस्म का व्यक्ति हूं और यह बात याद दिलाने में मेरे भाई कभी भी संकोच नहीं करते। मेरे अंदर समुद्र से मिलने या उसे पहली बार देखने का रोमांच नहीं था, बिल्कुल नहीं था। हां पर एक जिज्ञासा जरूर थी उस चीज को देखने की, जहां दूर-दूर तक केवल पानी ही दिखाई दे, उसके अलावा कुछ नहीं। यही जिज्ञासा लिए मैं उडुप्पी उतर गया। वैसे मुझे शायद यह लिखना चाहिए था कि समुंद्र से मिलने के चक्कर में मुझे रात भर नींद नहीं आई। ट्रेन की दो बाई 6 की बर्थ पर करवटे बदलते-बदलते रात बीती। लेकिन यह कुछ ज्यादा नाटकीय है और मेरे जैसे व्यक्ति के लिए तो और भी ज्यादा। 

सिंगल लाइन ट्रैक का स्टेशन उडुप्पी। आसापस वही पेड़ जो आमतौर पर समुद्र के किनारे मिलते हैं। अब यह मत पूछिएगा कि कौन से पेड़। कुछ तो आप लोगों के लिए भी छोड़ना पड़ेगा ताकि जब आप समुद्र के दर्शन को जाए तो थोड़ी जिज्ञासा थोड़ा रोमांच लेकर जाएं। उडुप्पी स्टेशन पर उतरने के बाद कुछ वैसी ही फिलिंग्स आ रही थी जो किसी फिल्म के हीरो को आती है जब वह अपनी गांव में रहनेवाली प्रेमिका की शादी रूकवाने जाता है। प्रेमिका की शादी यहां न तो कोई प्रेमिका है और न ही कोई शादी बस फिलिंग ही है। ज्यादा बड़ा स्टेशन नहीं था। छोटा सा स्टेशन, ज्यादातर लोग जो उतरे वह वहां घूमने ही आए थे। ट्रेन के आते ही स्टेशन पर चहल-पहल बढ़ी और उसके जाते ही फिर स्टेशन शांत हो गया। जैसे किसी सोए व्यक्ति की नींद झटके के साथ खुली और फिर वह नींद के आगोश नें सो गया। एक ऐसी नींद में जो केवल कुछ पल के लिए ही खुलती है। सुबह और दोपहर के बीच के समय में ट्रेन ने उडुप्पी छोड़ा। इस तरह के छोटे स्टेशनों का अपना ही सौंदर्य होता है। न ज्यादा लोग, न ज्यादा चहल-पहल। हर चीज जैसे अपने में ही संतोष किए हुए बैठी है। ट्रेन के जाने के बाद सामने पहाड़ी का मनोरम दृश्य मन को हरने के लिए तैयार बैठा था। 

अब पहला काम था कि सामान को होटल में छोड़ा जाए और समुद्र से मिलने चला जाए। छोटा स्टेशन होने के बावजूद और शायद पर्यटन जगह होने के कारण वहां प्री पेड़ ऑटो की व्यवस्था थी। दाम पहले से ही तय थे। गजब तो यह था कि जिस होटल में बुकिंग थी उसका नाम न तो ऑटे बुक करने वाले ने और न ही ऑटो ड्राइवर ने सुना था। पर वो कहते है न कि खोजने से तो .................. मिल जाते हैं एक होटल क्या चीज है। जो खाली जगह छोड़ी है वहां अपने मुताबिक कुछ भी भर लीजिए। किसी तरह पूछते-पाछते होटल पहुंच गए। अगर यही बिहार या उत्तर-प्रदेश की कोई जगह होती तो कई ऐसे लोग मिल जाते हैं जो पता पूछने पर आपको पूरा घर तक छोड़ आएंगे। बात आखिर बात की होती है कि कौन गांव के बारे में कितना जानता है। वैसी बात यहां नहीं थी। 

इस पूरी यात्रा के दौरान एक दिक्कत तो आई कि वहां के ऑटो चालकों को ठीक से न तो हिन्दी समझ में आती है और न ही अंग्रेजी। वैसे अगर उनको अंग्रेजी समझ में आती तो मुझे कौन सा अंग्रेजी बोलनी आती है। या इसको उल्टा भी कह सकते हैं कि हमें उनकी भाषा नहीं आती थी। खैर अब समझ में आया कि पहले के यायावरों को कितना दिक्कत आती होगी जब वह किसी नई जगह पहुंचते होंगे। ये तो भला हो अशाब्दिक भाषा का जिसके कारण कम-से-कम आप कहीं पहुंचे न पहुंचे भूखे तो नहीं ही मरेंगे। जैसे जब कुत्ते को भूख लगती है तो वह पेट आसमान और पीठ जमीन की ओर करके लोटने लगता है, हमें भौंकना नहीं आता लेकिन फिर भी समझ जाते हैं कि उसको भूख लगी है। कुछ ऐसे ही टूटी-फूटी आपसी समझ के सहारे हम होटल पहुंच गए।

होटल तो हम लोग पहुंच गए थे। उसने भी नया-नया होटल खोला था जैसे हमारे इंतजार में बैठा हो कि कब हम उडुप्पी आएं और होटल का फीता काटे, लेकिन हमारे आने से पहले ही किसी ने फीता काट दिया था। तो फीता काटने का सौभाग्य तो हमें नहीं मिला। होटल मैनेजर से कह कर एक ऑटो की व्यवस्था की गई। पहले ही उस ऑटो वाले को बता दिया गया कि कहां-कहां जाना है, मामला मीटर पर फिक्स हुआ। मीटर वाला मामला शायद दिल्ली वालों के गले न उतरे, क्योंकि मीटर से चलने का मामला उनके लिए जैसे सदियों में होने वाली किसी घटना की तरह है। होटल वाले ने मट्टू बीच पर जाने की सलाह दी वहां ज्यादा भीड़ नहीं होती। भीड़ तो छोड़िए वहां एक-आद ही व्यक्ति दिखते हैं। क्योंकि उडुप्पी का मालपे बीच मशहूर है जहां से उस टापू के लिए नाव चलती है जहां वास्को डी गामा ने पहली बार भारत पर कदम रखा था। वास्को डी गामा टापू की बात बाद में करेंगे फिलहाल अपने मिलन पर फोकस किया जाए। 

ऑटो अनजाने रास्तों से होता हुआ चल निकला। नए रास्तों के साथ यही होता है कि आंखे हर चीज देखना चाहती है। इन रास्तों से ही समुंद्र की हवाओं को पहचाना जा सकता था। जब शहर के रास्तों से निकल कर थोड़ा बाहर आए तो समुद्र से होकर आ रही हवाएं एक अलग ही एहसास दे रही थी। अब समुद्र के आने का एहसास होने लगा था। एहसास का होना भी अजब एहसास है कि किसी भी चीज का पहले ही एहसास करा देता है। मन में समुद्र में नहा कर और भी नमकीन हो गई हो वाला गाना बज रहा था लेकिन यहां ऐसा कुछ दिखने की संभावना न के बराबर नहीं बल्कि हां से कोसों दूर थी। फिल्मों की माने तो समुंद्र का महत्व तभी होता है जब उसके पानी से कम कपड़े पहने हुए कोई अप्सरा सी जीव बाहर निकले। वैसे अप्सरा की परिभाषा पर बहस की जा सकती है। 

हाई टाइड के समय जो पानी समुंद्र से बाहर की ओर चला आता है उस पर खड़ी नांवे दिखनी लगी थी। नांवों पर भी कई प्रकार के झंडे लगे हुए थे। यह संकेत था कि समुंद्र बस कुछ ही दूरी पर है। दिल का पता नहीं पर आंखों में थोड़ी बेचैनी बढ़ गई थी। वे पेड़ों को चीर कर समुंद्र को देख लेना चाहती थी। आखिरकार ऑटो एक जगह रूका। पैर सूखे रेत पर पड़े, कुछ सूखी रेत चप्पलों में चली गई जैसे वह पांव पगार रही हो। अब तो पांव पघारने की वाली बात देखना तो दूर सुनने में भी नहीं मिलती। पहले जब कोई अतिथि घर आता था तो उसके पांव थाली मे रखकर धोए जाते थे। मट्टू बीच ने पानी से न सही पर समुंद्र के रेत जरूर पांव धो दिए। पैर को झाड़ते हुए जब नजर सामने गई एक गहरी सांस अपने आप शरीर ने खींच ली। आखिरकार! आंखों के सामने समुद्र था। जहां आसमान और जमीन का संगम होता है क्षितिज, वहां तक केवल पानी ही पानी और उस पर पड़ने वाली धूप की चमक नजर आ रही थी। आप किसी भी चीज का कितना भी वर्णन पढ़ ले लेकिन उससे मिलने व देखने का हर व्यक्ति का अपना ही वर्णन व उसका एहसास होता है। समुद्र को देखते ही मेरा दिमाग उसके लिए सटीक शब्द खोजने लगा। अब मैं कोई साहित्कार तो हूं नहीं, मेरे पास सीमित शब्द है। अब इस सीमित शब्दों के चक्कर में मेरे दिमाग को कोई सटीक शब्द नहीं मिल रहा था। दिमाग जहां शब्द खोजने में व्यस्त था वहीं आंखे समुद्र से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। उमड़ती लहरे हर बार पांव को छू कर वापस हो जाती। पानी के वापस जाते हुए पांव रेत में अपने-आप धंसते जाते। दिल किया कि वहीं से समुद्र में छलांग लगा दूं। लेकिन किस्मत देखिए मैं समुंद्र किनारे गया लेकिन उसमें नहा नहीं पाया। ये तो वहीं बात हो गई कि हाथ को आया मुंह न लगा। 

मैं बहुत देर तक समुद्र को निहारता रहा। उसकी आती-जाती लहरे बार-बार मेरे पैर से टकरा रही थी और ठंडी रेत पैरों के तलवों में गुदगुदी कर रही थी। लेकिन मैं यही सोच रहा था कितना विशाल है समुद्र, जबकि मैं उसके केवल एक बहुत छोटे हिस्से को ही देख रहा था। फिर भी उसकी विशालता को मैं महसूस कर सकता था। लहरे झूमती हुई किनारे से टकरा रही थी। उनको किसी का डर नहीं था। वे बैखौफ से किनारों पर आ-जा रही थीं। मैं समुद्र की ताकत को महसूस ही कर रहा था कि मुझे दूर एक नाव दिखाई दी। इतने बड़े समुंद्र में एक छोटी सी नाव। इतने विशाल समुद्र के विशाल लहरों को इनसान ने साधा और उसकी लहरों पर सवारी की है। लेकिन जब भी समुंद्र और नाव का बात होती है कि तो अनायास टाइटैनिक का ख्याल जहन में आ जाता है। कि इनसान कितनी भी बड़ी चीज बना ले, समुंद्र या प्रकृति के आगे वह तिनके की तरह बिखर ही जाता है।
अब इतने सारे ख्यालों को मैंने साइड में रखा और समुंद्र के किनारें बैठकर आराम से लहरों के आने और जाने के क्रम को देखता रहा। एक पल के लिए दिल में आया कि मैं भी शाहरूख खान की तरह लहरों के साथ कबड्डी खेल लूं। लेकिन फिर याद आया कि वह शाहरूख और तू केवल अदना सा इनसान। खैर वैसे भी मैं आलसी किस्म का इनसान हूं तो उठने का मन नहीं किया। और मैं बस देखता रहा उस समुद्र को जिससे मैं 29 साल बाद मिल रहा था।

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